बालाजी हालगे:
भारत सरकार ने 2020 में तीन किसान बिल मंज़ूर कर दिये हैं। ये बिल ख़ासतौर पर ज़मींदारों और बड़े किसानो के लिए अच्छा और फायदे के हैं। जो अल्प भूधारक या विधवा औरतें खेती करते हैं, उनके लिए ये बिल हानिकारक हैं। कोविड 19 महामारी के दौरान पहले से ही किसान की हालत खराब है। इन बिलों से उनके ज़ख्म पर नमक छिड़कने का काम सरकार ने किया है। एक बिल के प्रावधान के अनुसार खुला मार्किट आने से, छोटे किसान और विधवा औरतें, देश के कौन से बाज़ार में आएंगे फसल बेचने? क्यूंकि आने वाले दिनों में ब्लॉक/तालुका मार्केट तो बंद हो जाएंगी और गाँव-गाँव में बड़ी कंपनियां आएंगी और अग्रीमेंट करवाके किसानों को खेती पर कर्ज़ा देकर उनका बोझ बढ़ाएंगी।
जैसे आज के दौर में महाराष्ट्र में शुगर फैक्ट्री की मनमानी चलती है, ऐसे ही हालात किसानों पर भी आएगी। पहले ज़माने में बारिश अच्छी होती थी और रासायनिक खाद का उपयोग नहीं होता था। आज के दौर में रासायनिक खाद, रासायनिक औषध का उपयोग ज़्यादा होता है। हाल ऐसा हो गया है कि बिना रासायनो के खेती उपज ही नहीं दे पा रही है और इनकी कीमत भी ज़्यादा होती है। एक गाँव में 10 ज़मींदार होते हैं और बाकी अल्प भूधारक। इनके पास ना बैल होता है और ना ही ट्रेक्टर होता है। हर साल, दूसरों से किराए पर मंगवाकर यह अल्प भुधारक किसान अपनी खेती कर पाते हैं। इनको कोई भी बैंक आसानी से कर्ज़ा नहीं देता है। खेती की कम ज़मीन होने के कारण कोई भी ऐसे किसानों को उधार पर भी पैसे नहीं देता।

किसान के बच्चे तो शिक्षा से कोसों दूर रहते हैं, 10वीं या 12वीं तक शिक्षा पूरी कर पाते हैं। उच्च शिक्षा नहीं ले पाने के कारण या तो वे शहर जाकर काम करते हैं या परिवार में खेती के कामों में लग जाते हैं। सरकार ने किसानों को साल में 6000/- रूपए देने की योजना बनाई है, ऐसे में 50 किसानों को दी गई एक साल की रक्म तो एक मिनिस्टर के फील्ड दौरा के बराबर है। भारत में खेती व्यवसाय ज़्यादातर बारिश के ऊपर ही निर्भर है। अपने देश में किसी साल बारिश बहुत ज़्यादा होती है तो किसी साल किसान बारिश को तरस जाता है, दोनों से ही, नुकसान केवल किसान का होता है। मौसम के बदलाव के कारण बारिश और भी अनियमित हो गई है।
खेती का स्त्रोत पहले से ही कम होता जा रहा है। जिस किसान को दो या चार बेटी हो, उस किसान को तो बेटी की शादियों में जो बचत के अलावा अपनी खेती तक बेच देनी पड़ती है। इसलिए किसान आत्महत्या/खुदखुशी कर रहा है।
भारत के मज़दूर – मुर्दों के बीच एक ज़िन्दा लाश
कोविड-19 महामारी के दौर में मज़दूर के घर, काम की हालत बहुत ख़राब हो गई। प्रवासी मज़दूर लॉकडाउन के चलते, काम ठप होने पर, सब छोड़ कर, घर-गाँव आने को मजबूर हो गए थे। कई लोगों के पास तो गाँव आने पर, रहने के लिए घर भी नहीं था। सरकार ने मज़दूरी देने के कानून बनाए तो हैं, लेकिन मज़दूरों को आज तक भी व्यवस्थित-उचित रूप से काम नहीं मिल रहा। दूसरी ओर सरकारी नौकरी कर रहे लोगों को, डॉक्टर, प्रोफेसर, इंजिनियर, सबको हफ्ते की छुट्टी, मासिक पेमेंट, रिटायरमेंट के बाद भत्ता, रहने के लिए घर, बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल, गाड़ी और तो और मरने के बाद, घर वालों को भी पेंशन, इत्यादि जैसी सुविधाएँ देती है सरकार। पर मज़दूरों को निरंतर ही काम की तलाश करनी पड़ती है, काम मिला तो पूरा मुआवज़ा भी नहीं मिलता है, और आमतौर पर कम से कम 12 घंटे दिन के काम करना पड़ता है।
ज़मीनी इलाके में तो ईंट-भट्टी उद्योग में सब मज़दूरों के साथ साथ, उनकी औरतों और बच्चों को भी काम करना पड़ता है। इससे बाल मज़दूरी बढ़ रही है और बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं। कोविड-19 के दौरान सहयोग के रूप में सरकार ने खाली राशन में गेहूं और चावल ही दिया पर घर का बाकी सब खर्च तो खुद को करना पड़ा। लॉकडाउन में बाहर आना तो मना था, काम भी नहीं मिल रहा था और ऊपर से महामारी का डर बढ़ता जा रहा था। ऐसे हालत में मज़दूर ने बहुत कुछ सहा और सरकार की ओर से कुछ सुविधा/सहायता नहीं मिली।

मज़दूर 15-16 उम्र की युवावस्था से काम करना शुरू किया तो उसको आखरी सांस तक काम करना पड़ता है। मज़दूर अच्छे घर नहीं बना पाता/रहता, उसको अच्छा खाना नहीं मिलता, वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाता। आज के दौर में सरकार ऑनलाइन लैपटॉप/मोबाइल के द्वारा स्कूल-कॉलेज की क्लास चला रही है। मज़दूर के घर में स्मार्ट फ़ोन नहीं है, इसलिए उनके बच्चे शिक्षा से दूर हैं। मज़दूर को पेंशन नहीं मिलती, हफ्ते की छुट्टी नहीं मिलती, कोई भी बैंक कर्ज़ा देने में संकोच करता है।
ऐसे में तो मज़दूर, मुर्दों के बीच बस एक ज़िन्दा लाश ही है।
