बालाजी हालगे:
जब से खेती, उद्योग के साथ चल रही है तभी से किसान बहुत सी समस्याओं से जूझ रहे हैं। अन्य व्यवसायों की तरह खेती की भी अपनी अलग-2 पद्धति और तकनीक होती है। इसमें किसान को आसमान से गिरने वाली बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। वैसे तो किसान अपनी खेती और फसलों का अनुभवी और ज्ञानी होता है, परन्तु उसे मौसम का, बाज़ार का, और लाचार पेट का भी सोचना पड़ता है। इस कारण सरकार की नीतियों और परियोजनाओं पर उसका ध्यान नहीं रहता, न ही वह उन पर कोई प्रतिक्रिया दे पाते हैं।
मशहूर गीतकार शैलेन्द्र ने जैसा अपने गाने में कहा है – लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देखकर रोया, वैसे ही किसान भी अंत में रोते हुए मिलते हैं। जब फसल काटने का समय होता है, तब अगर उसने ज्वार की जगह गेहूं उगा लिया होता है तो उन्हें लगता है कि कोई उपलब्धि पायी है। बहुत बाद में वो समझ पाते हैं कि कब कौन सी फसल की कितनी कीमत मिलेगी, उसका फैसला बाज़ार ही करता है और उसका कोई भी भरोसा नहीं कर सकता। कितनी बार तो अपनी फसल कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ जाती है। बाज़ार लाने ले जाने की ढुलाई में भी खूब खर्च होता है।
जैसे कोई कार कंपनी या मोटरसाइकिल की कंपनी अपनी लागत के अनुसार अपने उत्पाद की कीमत खुद तय करती है, खेती में ऐसा नहीं होने से किसान लगातार समस्या झेल रहे हैं। बढ़ती लागत और खर्चों का कोई हिसाब नहीं है। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ जाएं तो सरकार कहती है कच्चा तेल महँगा हो गया है। अगर सरकार किसान की फसल को अन्य बाज़ार में बेचने के लिए क़ानून लाती है तो उन्हें मजबूरी में या तो खेती छोड़नी होगी या दूसरे राज्यों में काम ढूंढ़ने जाना पड़ेगा। सरकारी मदद भी बड़े तौर पर खत्म हो जाएगी तो क़र्ज़ और नुकसान, किसानों की ज़िन्दगी तबाह कर देंगे।
हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि खुले बाज़ार के भरोसे किसान को ना रखें और बड़े पूंजीपति समूहों को खेती में लाने के कानून ना बनाएं। इसके बदले सरकार यह सुनिश्चित करे कि किसान के द्वारा उगाई गई फसल के हर एक दाने का सही मूल्य उन्हें मिले, और भुखमरी और बदहाली की ज़िन्दगी से उन्हें छुटकारा मिले। इसके लिए ही किसान विरोध कर रहे या अपनी आवाज़ उठा रहे हैं, पर उनकी आवाज़ कोई नहीं सुनता।
