दुलिचंद:
मेरा नाम दुलिचंद है। मैं राजस्थान के झालावाड़ ज़िले से हूँ। वर्तमान में, मैं झिरी गाँव के मंथन स्कूल में बच्चों को पढ़ाता हूँ। मेरे घर में कुल पांच सदस्य हैं- माता-पिता, दो बहनें और मैं। मेरे पिताजी एक किसान हैं। हमारे पास थोड़ी से ज़मीन है और उसी ज़मीन पर खेती करके मेरे पिताजी घर का खर्चा चलाते हैं। पहले हमारे पास बहुत कम ज़मीन थी जिससे घर चलाना बहुत ही कठिन था। मेरे पिताजी घर व गाँव छोड़ कर मज़दूरी करने के लिए शहर गए, वहाँ पर उन्होंने 7 साल तक मेहनत की, उसके बाद गाँव में थोड़ी से ज़मीन खरीदी। फिर हम सब गाँव आ गये और वहाँ पर खेती करने लगे। हमारे गाँव के पास ही मंथन स्कूल है, पिताजी ने खेती करके, हम तीनों भाई-बहनों को उसी स्कूल में पढ़ाया।
बीच में मेरे पिताजी का पैर किसी झगड़े के कारण, टूट गया और माँ खेती करने लगी। लेकिन माँ को खेती करने में दिक्कत होने लगी, तो मेरी एक बहन को स्कूल छोड़कर माँ के साथ खेती करना पड़ा। लेकिन हम दोनों भाई-बहनों को खूब पढ़ाया। मेरी बहन को उन्होंने कॉलेज तक की पढ़ाई कराई। बाद में उसने नरेगा में जैईन की नौकरी मिल गयी। उसने भी 4-5 साल तक मंथन स्कूल में बच्चों को पढ़ाया था। बाद में मेरे पिताजी ने उसकी शादी कर, उसे ससुराल भेज दिया। उन्होंने ग्रेजुएशन के बाद मेरी भी शादी करा दी। उनका पैर टूटने के बाद भी पिताजी ने कभी भी किसी चीज की कमी नहीं आने दी। मेरे लिए दुःख की एक बात यह है, कि हमारी एक बहन केवल पांचवी कक्षा तक ही पढ़ पायी। लेकिन उसकी शादी, बी.एड. किये हुए लड़के से करवाई। मेरी बहन उस लड़के के साथ खुश है। मेरे माता-पिता ने मेहनत करके हम तीनों भाई-बहनों की शादी करवा दी। अभी मेरा एक बच्चा भी है।
मैं जब पढ़ाई करता था, उस समय गर्मियों की छुट्टियों में मज़दूरी करता था और उसी मज़दूरी से अपने स्कूल की फीस देता था। घर वालों से पैसे नहीं लेता था। फिर भी घर वाले मुझे पैसे देते रहते थे। शादी के बाद, मैं भी खेत में मेहनत करने लगा, जिससे खेत में अच्छी फसल निकलने लगी। तो कुछ पैसे की हमने बचत भी की।
मेरे पिताजी ने मुझे मंथन स्कूल में पढ़ाने के लिए कहा। मैं वहाँ बच्चों को पूरी मेहनत से पढ़ाने लगा। स्कूल से मिले पैसे और पिताजी की बचत के पैसे से हमने हमारे कच्चे घर की जगह नया पक्का घर बनाया। अभी हमारी आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया है। अब मैं और मेरे माता-पिता भी खुश हैं। शुरू से ही घर को चलाने में मेरी माँ का हाथ था, अगर वो इतनी मेहनत नहीं करती तो हम लोग भी अनपढ़ रहते, क्योंकि मेरे पिताजी का पैर ठीक होने में 4-5 साल लग गये थे। आज भी वो ज़्यादा शारीरिक काम इतना नहीं कर पाते हैं। मेरी माँ ने खेती के काम के साथ-साथ दूसरों के यहाँ जा कर भी मज़दूरी की, तब जाकर हम बच्चे पढ़ पाये। मैं हमारी सफलता का सारा श्रेय अपनी माँ को देता हूँ।