परसा कोल ब्लॉक पर घमासान जारी – एक दशक के आंदोलन पर  एक दिन भारी

रामलाल करियाम: 

हाँ! हम परसा कोल ब्लॉक उदयपुर सरगुजा की बात कर रहे हैं, जहाँ अदानी अपना पांव जमाने की कोशिश में लगा है और लोगों की ज़मीन को कोल बेयरिंग एक्ट का हवाला देकर, खरीद-बिक्री को बदस्तूर जारी रखे हुए है। यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि यह इलाका पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में आता है। यह छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल क्षेत्र है, जहाँ आदिवासी अपनी ज़मीन  को बचाने के लिए एक दशक से आंदोलन कर रहे हैं। वो तहसील, कलेक्ट्रेट, सीएम हाउस, राजभवन के कई दफा चक्कर काट चुके हैं और न्याय के लिए तरस रहे हैं। गत समय जब 75 दिन का धरना प्रदर्शन हुआ तो फतेहपुर में कोई सुनवाई नहीं हुई। अभी हाल में  हरिहर पुर में अनिश्चित कालीन धरना जारी है। 

29/03/22 को कंपनी के कर्मचारियों द्वारा एक वृहद आंदोलन किया गया और परसा कोल ब्लॉक शुरु करने की मांग की गई, जिसमें महज 10 प्रतिशत किसान शामिल हुए। दूर-दूर के गांव से गाड़ी में भरकर बिना बताए लोगों को ले जाया गया। पेपर कटिंग, टीवी न्यूज देखने से पता चलता है कि जो लोग  न्यूज में बयानबाजी कर रहे हैं वे लोग  कंपनी के कर्मचारी हैं, कुछ लोग बाहरी हैं। शासन प्रशासन को वीडियो क्लिप, और टीवी न्यूज़ में दिख रहे लोगों की जांच की जानी चाहिए, जांच के बाद दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। जिनकी एक इंच भी ज़मीन नहीं जा रही है, वे टीवी न्यूज में बाइट देते नजर आ रहे हैं इससे साफ जाहिर होता है दाल में कुछ तो काला है। खदान का नाम है परसा जबकि परसा गांव का एक इंच भी ज़मीन खदान में नहीं जा रहा है, स्थानीय आदिवासी वर्ग इस तरह के गतिविधि से हतप्रभ है कि ज़मीन मालिकों को खदान के लिए  ज़मीन देने के लिए कुछ बाहरी लोगों के द्वारा दबाव बनाया जा रहा जो उचित नहीं है। 

इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए ताकि स्थानीय आदिवासी लोगों के साथ न्याय हो सके। कंपनी प्रायोजित वीडियो देखने से पता चलता है लोग खुद को कैमरे से बचाते नजर आ रहे हैं। इसका मतलब समझा जा सकता है। कुछ स्थानीय आदिवासी समाज के लोगों को बहला फुसलाकर उनके हाथ से ही उनका हाथ कटवाया जा रहा है। कुछ जानकार आदिवासी युवाओं का कहना है कि हमारा सेटलमेंट की ज़मीन चली जायेगी, तब आने वाली पीढ़ी जाति प्रमाण पत्र कैसे बनवाएगी? 

आंदोलन में गए लोग नौकरी की मांग तो कर रहे हैं जो समझ से परे है। जब स्टाम्प पेपर में एगरीमेंट करके ज़मीन का पैसा लिए उस समय  एगरिमेंट में नौकरी का उल्लेख किया जाना चाहिए था जो हुआ है या नहीं, ये तो आंदोलनकारी ही बता पायेंगे। लेकिन एक चीज समझ से परे है कि पैसा लेने के लिए कंपनी के पास गए और नौकरी मांगने जिला प्रशासन के पास जा रहे हैं, कुछ तो गड़बड़ है? आदिवासी संस्कृति, प्रकृति का नुक़सान हो रहा है, बीहड़-जंगल कटेंगे तो लोग दाना-दाना के लिए तरसेंगे। धन तो बरसेगा या नहीं ये तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन जीवन तो तरसेगा! 

लोग वीडियो क्लिप में डॉक्टर-इंजीनियर बनने की बात कर रहे हैं इस क्षेत्र  में कंपनी को आए 10 साल हो गए, कितने डॉक्टर-इंजिनयर बने हैं, यह भी जानने की बात है। ये बातें तो विकास की करते हैं, लेकिन क्षेत्र में जाने से पता चलता है कि जो भी हो, खदान आदिवासी, और पर्यावरण की दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि आदिवासी संस्कृति, प्रकृति प्रदत्त वनस्पति के आस-पास ही घूमती है। इसके बगैर आदिवासी जीवन का कोई मूल्य नहीं है। आदिवासी समाज के सभी गोत्र, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी के इर्द गिर्द ही घूमते हैं, जिसके कारण आदिवासी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए जल, जंगल ,ज़मीन की रक्षा करते हैं। 

आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है जंगल, जिसे उजाड़ना आदिवासी सभ्यता के विपरीत है। पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के प्रविधान से संविधान, इस तरह के गतिविधि पर पूर्णतः रोक लगाता है। इसके बावजूद आदिवासी संस्कृति और सभ्यता को विकास के नाम पर मिटाया जा रहा है। विकास तो क्षेत्र में जाने से पता चलता है, कंपनी स्थापित हुए 10 वर्ष हो गए लेकिन विकास का कहीं नाम निशान नहीं है। लोगों को नशे का आदी बनाया जा रहा है, ताकि कंपनी का काम आसान हो सके। कुछ लोगों को बहला फुसला कर कंपनी के पक्ष में माहौल बनवाया जा रहा है। यहाँ पर ये कहावत सटीक बैठटी है ,“पेड़ कटने का किस्सा न होता, यदि कुल्हाड़ी के पीछे लकड़ी का हिस्सा न होता।” 

आने वाला समय, इस क्षेत्र के लिए बहुत ही घातक होने वाला है। क्षेत्र में हो रहे परिवर्तन से इसके स्पष्ट संकेत दिखाई दे रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, और स्थानीय जलवायु में हो रहे बदलाव केवल इस क्षेत्र के लिए ही नहीं अपितु पूरे छत्तीगढ़ के लिए नुकसान देह हैं। आने वाले समय में इसके गंभीर परिणाम भुगतने ही होंगे, इंसान के साथ साथ वन्य प्राणी, जंगली जड़ी-बूटी, आदिवासियों के आय के साधन, चार, महुआ, साल बीज, तेंदू पत्ता, और वन सम्पदा का करोड़ों की संख्या में नुकसान होगा। दो फसली कृषि योग्य भूमि, जहाँ बारहमासी जल स्रोत प्रकृति प्रदत्त हैं, इससे सरकार को क्या मतलब? ऐसा लगता है कि संविधान में आदिवासियों को दिए गए संवैधानिक अधिकार का कोई मतलब ही नहीं है।

Author

  • Ramlal Kariyam/रामलाल करियम

    रामलाल छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले के साल्ही गॉंव के रहने वाले हैं। वह पिछले 8 साल से हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के साथ जुड़कर अपने जल-जंगल-ज़मीन को अदानी कंपनी द्वारा संचालित खनन परियोजनाओं से बचाने में संघर्षरत हैं।

Leave a Reply