सुनील इंडियन:
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया के हर प्लेटफॉर्म पर ट्रेडिंग में एक ही नाम चल रहा है- ‘द कश्मीर फाइल्स’। एक फिल्म जो 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों को दिखाती है। हर कोई ये फ़िल्म देखने की अपील करता नज़र आ रहा है। मुझे भी काफ़ी लोगों ने यह फ़िल्म देखने का आग्रह किया। एक दोस्त ने मुझे भी ये फिल्म भेजी तो मैंने भी यह फिल्म देखी।
फिल्म में दिखाया गया कि कैसे कश्मीरी पंडितों के साथ हिंसक दुर्व्यवहार किया गया। कैसे उनको कश्मीर छोड़ के भागना पड़ा, कैसे सरकार तमाशबीन होकर बैठी रही, कैसे मीडिया ने नाटक किये, कैसे वहाँ की महिलाओं पर निंदनीय अत्याचार किए गये। अब सत्य तो पता नहीं क्या हैं, क्योंकि आंकड़े अलग-अलग हैं। मैं कुछ दिनो से देख रहा हूँ कि सोशल मीडिया पर लोग कश्मीरी पंडितों के लिए पूरी शिद्दत से दुःख प्रकट कर रहे हैं। सरकार भी फ़िल्म को देखने की अपील कर रहीं हैं। कुछ राज्यों में फिल्म को टैक्स फ्री किया जा रहा है। फ़िल्म में दिखाये गए इस प्रकार के हिंसा के दृश्यों ने लोगों को झकझोर दिया है। लोग सिनेमा घरों से बाहर निकलते हुए उदास दिख रहे हैं और रो रहे हैं। देश के हर कोने से इस पर प्रतिक्रिया आ रही है। संसद में भी यह मुद्दा उठाया गया।
फ़िल्म देखकर मुझे भी दुःख हुआ, पर मुझे भी उतना ही दुःख हुआ जितना इस देश के दलितों और आदिवासियों के साथ आये दिन होती घटनाओं को देखकर होता है। मेरा मन बस इतना ही व्यथित हुआ, जितना किसी दलित के मात्र मूँछें रखने पर मार दिए जाने से हुआ। सिर्फ इतना ही दर्द महसूस हुआ, जितना दलितों को घोड़ी पर बारात निकालने पर मारने पर होता है। सिर्फ इतना ही वीभत्स लगा, जितना किसी आदिवासी लड़की के दिहाड़ी में मात्र 3 रुपये बढ़ाने की बात को लेकर उसके साथ गैंगरेप करके मार दिए जाने पर लगा। सिर्फ़ इतना ही कष्ट पहुंचा, जितना किसी दलित और आदिवासी के मात्र मंदिर में प्रवेश करने पर नंगा करके पीट-पीट कर मार दिए जाने पर पहुंचा। या यूँ कहूँ कि मुझे ऐसे अत्याचारों पर दुःख प्रकट करने की आदत हो चुकी है।
मैं कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों की निंदा करता हूँ। लेकिन मैं देख रहा हूँ इस देश में सिर्फ वर्ग विशेष पर हुए अत्याचारों को ही अत्याचार समझा जाता है। लेकिन दूसरी तरफ इस देश के दलितों और आदिवासियों पर सदियों से लेकर आज तक अत्याचार होते आ रहे हैं, उनको लेकर किसी को कोई हमदर्दी नहीं है? उनके दर्द पर भी बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं, लेकिन उनका विरोध होता है। उन्हें सिनेमा में प्रदर्शित होने से रोका जाता है, धमकियाँ दी जाती हैं। ऐसा क्यों?
संसद में बहुत बार मुद्दे उठ चुके हैं, पर वो सब संसद में टेबल की थाप के नीचे दब कर रह जाते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासियों से उनके जल-जंगल-ज़मीन, सब विकास के नाम पर छीन लिया जाता है और विरोध करने पर न जाने कितनों को नक्सली करार देके मार दिया गया है और मारा जा रहा है। न जाने कितनी महिलाओं के साथ अत्याचार हुए हैं? घरों के पास पुलिस कैम्प खोल दिए गए हैं। न जाने कितने बेकसूर आज भी जेलों में सड़ रहे हैं? निहत्थे लोगों पर गोलियां चला दी जाती है और पूरा देश इन सब से बेख़बर रहता है। वहां मारे गए लोगों के परिवार वालों को मुआवजे के रूप में कुछ हजार रुपये और कुछ कपड़े देकर शांत करा दिया जाता है।
कितना शर्मनाक है कि इस देश के दलित और आदिवासी जिनको देश का मूल निवासी कहा जाता है, उसकी जान की कीमत महज कुछ हजार रुपये आंकी जाती है। क्या आदिवासी की जान की कीमत बस इतनी ही है?
दलितों और आदिवासियों पर सदियों से दर्दनाक अत्याचार होते आ रहे हैं, और उस पर किसी का कोई मुंह नहीं खुलता है। छत्तीसगढ़ के ही बीजापुर जिले में 2013 की रात को सुरक्षाकर्मियों द्वारा 7 आदिवासियों को माओवादी कहकर उन पर अंधाधुंध गोलीबारी कर मार दिया जाता है। 9 साल बाद 2022 की न्यायिक जांच रिपोर्ट बताती है कि मारे जाने वाले सभी बेकसूर थे। वे सभी लोग अपना आदिवासी त्योहार बीज पंडु मनाने के लिए एकत्रित हुए थे। क्या उनको न्याय मिल पायेगा?
उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, क्योंकि ये सब एक वर्ग विशेष से नहीं आते। दलितों और आदिवासियों पर हुए अत्याचार पर भी फ़िल्में बनी हैं, पर कभी किसी ने उनके दर्द को नहीं समझा। इससे पहले कभी किसी दोस्त ने ऐसे मुझे उन पर बनी फिल्म देखने का आग्रह नहीं किया। कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचार पर बनी फिल्म देखने मात्र से जिंका खून खौल गया, उनको बता दूँ कि ऐसे अत्याचार ये लोग सदियों से झेलते आ रहे हैं। मात्र नदी तालाबों से पानी पीने पर उन्हें मार दिया जाता था, महिलाओं को स्तन ढंकने तक का अधिकार नहीं था। पीठ पीछे झाड़ू और गले में हांडी बाँध कर रखनी पड़ती थी, उन्हें थूकने तक का अधिकार नहीं था। उनकी परछाई तक पड़ जाना लोगों नागवार था, श्लोक सुनने पर कानों में सीसा पिघला कर डाल दिया जाता था। किसी वस्तु को छूने मात्र पर हाथ उनका काट दिया जाता था। आज भी ऐसे किस्से सुनने को मिल जाते हैं जब किसी दलित को स्कूल या मंदिरों में घुसने पर उसके साथ मारपीट की जाती है। लड़कियों का रेप कर के उन्हें मार दिया जाता है, और जब पुलिस से एफ़आईआर लिखने को कहा जाता है तो उन्हें डराया-धमकाया जाता है। इतने भयावह अत्याचारों के बावज़ूद किसी की जुबान नहीं खुलती है। तब तो किसी का खून क्यों नहीं खौलता? क्या वो इंसान नहीं है? यह दोगलापन क्यों? या फिर यह सब राजनीति मात्र है?
ये मानसिक और शारीरिक शोषण आज भी स्वतंत्र भारत राष्ट्र की बहुत सी जगहों पर चल रहा है। अखबार में आये दिन ख़बर प्रकाशित होती हैं “दलित दूल्हे के घोड़ी पर बारात निकालने पर ऊंची जाती के लोगों ने दूल्हे के साथ की मारपीट”, “दलित महिला का रेप कर मार डाला”, “मंदिर में प्रवेश करने पर महिला को अर्धनग्न कर पीटा”, “कुर्सी पर बैठ कर खाया खाना तो दलित की हत्या”, “दलित का मूछें रखना नहीं आया रास, मारी गोली” आदि। ऐसी अनेकों ख़बरें आये दिन अख़बारों में छपती रहती हैं, पर उस ओर किसी का कोई ध्यान नहीं जाता। अखबार के कोने में यह मात्र खबर बन कर रह जाती हैं।
हाल ही राजस्थान के पाली जिले के बाली नामक गांव में एक आदिवासी हेल्थ वर्कर जितेन्द्र पाल मेघवाल को चाकू घोंप कर सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है कि वो मूँछें रखता है, और उन पर ताव देता है, अच्छी लाइफ स्टाइल जीता है। हत्यारों का विरोध करने के बजाय, उनके पक्ष में सभा होती है। आखिर कब तक चलेगा ये सब? इस घटना को जानते हुए भी सब चुप्पी साधे हुए हैं। मुख्यधारा का मीडिया इन सब पर शांत है, क्यों?
मैं पूछना चाहता हूँ- यह दोगलापन क्यों? हमदर्दी सब के लिए होनी चाहिए या फिर ये इंसानों की श्रेणी में नहीं आते? अपने अंदर झाँक कर देखो क्या दलित-आदिवासी इंसान नहीं है? जिन्होंने इस देश की प्रकृति की रक्षा अपने प्राणों से की है। ये कैसी देशभक्ति है जो एकतरफा है? ये कैसी सहानुभूति है जो सिर्फ एक वर्ग विशेष के लिए है? ये कैसा दुःख है जो सिर्फ एक विशेष समुदाय के लिए व्यक्त किया जाता है? क्या सिर्फ़ एक वर्ग विशेष के लोगों के लिए ही न्याय की मांग करना जायज़ है? या फिर ये सब राजनीतिक एजेंडा है? याद रहे कि लोग मिल कर ही सरकार को बनाते हैं सरकार लोग नहीं बनाती।
मेरा मानना है कि जो लोग जो आये दिन दलितों-आदिवासियों पर अत्याचार करते हैं या उन पर होने वाले अत्याचारों पर सवाल न उठा कर सिर्फ़ एक वर्ग विशेष के अपराधियों के ख़िलाफ़ बोलते हैं। ये किसी भी अत्याचार का केवल तब ही विरोध करते हैं जब अपराधी एक अलग समुदाय का हो, उनका काम हिंसा फैलाने के अलावा कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों को न तो कश्मीरी पंडितों के लिए कोई हमदर्दी है, न ही इस देश के दलितों और आदिवासियों के लिए। ये लोग देश में हिंसा के माहौल को पनपने में सहयोग करते हैं।
अंत में, मैं यह कहना चाहता हूं कि एक शोषित व्यक्ति के लिए दुःख प्रकट करने वाला और दूसरे शोषित व्यक्ति के शोषण पर मौन धारण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति दोगला है।