बाबूलाल बेसरा:
पहले नारी न तो जश्न मना सकती थी,
न तो किसी जश्न में शामिल हो सकती थी।
न तो देर रात तक सड़क पर चल सकती,
न खिलखिला कर हंस सकती थी ।
न अपना विचार प्रकट कर सकती थी,
न तो अपनी मर्जी से नाच-गान कर सकती थी।
सामाजिक अत्याचारों के बंधन में बंधी हुई,
अंधकारमय जगत समायी हुई,
प्रकाशहीन जीवन मुरझाई हुई,
जीवन लक्ष्य गर्त में डबी हुई।
आधुनिक युग में नारी,
किसी के आगे सिर कटा सकती है,
लेकिन सिर झुका नहीं सकती।
दुनिया के सामने आगे बढ़कर,
दुश्मनों को मानों ललकार रही है।
नारी सब कुछ कर रही है,
आसमान में दौड़ लगा रही है,
कोई सिंहासन पर बैठ रही है,
नारी कर रही है कार्य महान।
नारी जूझ रही संघर्षों से,
गौर से सुनो जरा मेरी बात ओ भाई,
उसे पर्दे से बाहर आने दो,
सफलता के पथ पर आगे बढ़ने दो।