प्रशीक वानखेड़े:
मेरे शहर में भी एक मंदिर बना दो,
हर मुश्किल का समाधान वही हैं।
नष्ट होती फसलों का,
किसानों के टूटते हौंसलों का,
सूखे कुओं – तालाबों की वजह से,
धरती की कम होती नमी का,
यूरिया की होती कमी का,
आत्महत्या करते किसानों का मज़ार,
और सम्मान वही हैं।
मेरे शहर में भी एक मंदिर बना दो,
हर मुश्किल का समाधान वही हैं।
गरीब की रोटी का,
उसकी बिन बियाही बेटी का,
घर के बगल में बहते नाले का,
धूप में मेहनत करके पैरों में पड़े छाले का,
वही गरीब की झोपड़ी, उसका मकान वही हैं।
मेरे शहर में भी एक मंदिर बना दो,
हर मुश्किल का समाधान वही है।
बेरोज़गारों के रोज़गार का,
उनको रोज़ लहटी कॉपी-अख़बार का,
उनके अधिकारी बनने की आशाओं का,
दर्द एक सा,
परन्तु उन्हें अलग-अलग रूप में प्रस्तुत करती भाषाओं का,
सारे युवाओं का,
उनके परिवारों के सपने का आसमान यही हैं।
मेरे शहर में भी एक मंदिर बना दो,
हर मुश्किल का समाधान वही है।
गाँव के बाहर बसते दलितों के ठिकानों का,
जानवरों से भी सस्ती उनको जानो का,
औरों का मैला सर पर ढोते उनके माथों का,
गटर साफ़ करते नंगे हाथों का,
मान सम्मान और जाति, अंत की लड़ाई की पहचान यही हैं।
मेरे शहर में भी एक मंदिर बना दो हर मुश्किल का समाधान वही हैं।
मेरे शहर में भी एक मंदिर बना दो, हर मुश्किल का समाधान वही हैं।
फीचर्ड फोटो आभार: फ्लिकर
