मानव की उत्पत्ति के क्षण से ही साहित्य का विकास भी होता गया। मानव के जन्म के साथ ही साहित्य सृजन की परम्परा का भी जन्म हुआ। आरम्भ में खड़िया साहित्य मौखिक रूप में विकसित हुई। लोककथा एवं लोकगीतों के रूप में खड़िया सहित्य को एक सशक्त पहचान मिली, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती गयी। वे गीतों के माध्यम से अपनी परंपरा को उपहार स्वरूप देते चले गए। मूलतः खड़िया आदिवासी समुदाय प्रकृति प्रेमी है। प्रकृति से उनका गहरा लगाव है और उनका जीवन प्रकृति पर आश्रित भी है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन के साथ-साथ उनकी दिनचर्या भी परिवर्तित होती गयी है। परिणामतः खड़िया जनजाति के लोक साहित्य की सभी विधाएं मौसम पर ही आधारित हैं।
कुछ लोकगीत उदाहरण स्वरूप प्रस्तुति-
लोकगीत:
पांचों भाई की परगना ते
राइज नोपे ते आ:पे हिलेना तेरे
अनीया: राजी ला अनीया जिमागा
अनीया: राइज ला
आ:पे हिलेना तेरे
हिन्दी अनुवाद:
पाँच भाई पाँच परगना में
राज्य अपना हिलने न देना
हमारा राज्य भाई हमारे ही जिम्मे
अपना राज्य भाई
हिलने न देना।
आर्थिक जीवन पर लोकगीत
खड़िया लोकगीतों में आर्थिक जीवन के रूप में कृषि, व्यवसाय, शिल्प, पशुपालन आदि का चित्रण मिलता है। लोक जीवन की आर्थिक अस्त-व्यस्तता का भी परिचय मिलता है। यन्त्र-तंत्र और स्वर्ण के बर्तनों का उल्लेख इस जनजाति के स्वर्णिम अतीत का परिचायक है।
खड़िया जनजाति के जीवकोपार्जन का एक महत्वपूर्ण साधन है कृषि। प्रस्तुत लोकगीत में यह चित्रित है कि अच्छी फसल को लहलहाता देखकर एक कृषक का मन सचमुच आनंद विभोर हो उठता है। उसका मन यह सोचने लगता है कि इस वर्ष उसे भूखा नहीं रहना पड़ेगा।
लोकगीत:
एनमा: को गुडलु समय
गुंजरे गुंजरे उडेम माधो
सावन भादो उपजाय
गुंजरे गुंजरे उडेम माधो।
हिंदी अनुवाद:
इस वर्ष गोंदली का समय है
झूम-झूम कर पीना माधो
सावन भादो में उपज हुई है
झूम झूम कर पीना माधो
भोजन सम्बन्धी लोकगीत:
एनमागा: मुरडा: तोभलुंग रो तुता
कुलम दिरोम दिरोम
रोवा बा: बेरोडकी डोकोकी
कुलम दिरोम दिरोम
गुडलु या: गोलाड उडेनीग
कुदा लेटो जोंगेनीड
हाय रे जोंडरा: लावा गाएज
जोंगेनीड
हिंदी अनुवाद:
इस वर्ष की वर्षा, ऊपर और नीचे
भाई धीरे धीरे
रोपा धान उठा बैठा
भाई धीरे धीरे
गोंदली का हड़िया पीयेंगे
मडुवा का खिचड़ी खायेंगे
अरे मकई का लावा भूनकर खाएंगे
अरे मकई का लावा भून कर खाएंगे।
अतिथि सत्कार लोकगीत
खड़िया समुदाय में मेहमानों का बहुत आदर सत्कार किया जाता है। पारंपरिक तरीके से उनका सत्कार किया जाता है। जब मेहमान आते हैं तो सबसे पहले ‘पटिया'(चटाई) बिछाया जाता है, उसके बाद लोटा में पानी लाकर मेहमान के पैर धोये जाते हैं।

लोकगीत:
डेलकीमय गोतिया
बेलकाये झेंन्तु
आराम कुंडू: डामकी
आराम कुंडू: डामकी
ओले से रे बेटी लोटा ते डा:
काटा नो गुजुंगे
आमते रे बेटी
बोरोल जो:ना डोड़े।
हिन्दी अनुवाद:
मेहमान आये
चटाई बिछा दो
दामाद बाबू पहुँच गये हैं
दामाद बाबू पहुँच गये हैं
लाओ तो बेटी लोटा में पानी
पैर धोओ
तुमको तो बेटी
जीने खाने ले जाएगा।
सती प्रथा लोकगीत: खड़िया जनजाति का सम्बंध पालकोट राजा(गुमला) के साथ था। वहाँ निवास करने वाले खड़िया समुदाय के बीच सती प्रथा का वर्णन मिलता है। इस लोकगीत में सती प्रथा की चर्चा है-
लोकगीत:
पाइलको:टा सहरते
इ सोधोम सोधोमता
राजा गो:जकी रानी सती चोलकी
हीन सोधोम सोधोमता।
हिन्दी अनुवाद:
पालकोट शहर में
कौन सी आवाज़ गूंजती
कौन सी आवाज़ गूंजती
राजा मरे रानी सती हुई
वही आवाज़ गूंजती।
किसी भी जनजातीय समाज का दर्पण उसके लोकगीतों में दिखता है। प्राचीन काल मे तथाकथित सभ्य समाज की तुलना में अविकसित अथवा पिछड़ी खड़िया जनजाति के पास मौखिक परम्परा में जीवित और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित लोककथाओं, लोकगीतों, पहेलियों और कहावतों की भरमार थी।
