फिर से उलगुलान का समय – बिरसा मुण्डा की याद

अमित:

बिरसा मुण्डा, 1872 – 1901

बिरसा मुण्डा एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होने 26 साल के अपने मशाल से जीवन से पूरे जंगल में आग लगा दी और अंग्रेज़ों और उनके चमचे ज़मींन्दारों को नाको चने चबवा दिये। वो हमारे लिए एक प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

15 नवम्बर 1875, गुरूवार के दिन सुगना मुण्डा और करमी हातू को एक पुत्र हुआ जिसका नाम बिरसा रखा गया। बिरसा का जन्म उलिहातू गाॅंव के एक छोटे से घर में हुआ जो झारखण्ड के खूॅंटी ज़िले में है। परन्तु कुछ जनगीतों के अनुसार इनके जन्म का गाॅंव चलकाद बताया जाता है जो उसकी माॅं का गाॅंव था। बिरसा के बड़े भाई का नाम कोमता व छोटे भाई का नाम पासना मुण्डा था। बिरसा की दो बहनें थीं जिनके नाम दस्कीर व चम्पा थे।

काम की खोज में या साझेदारी में खेती करने के लिये बिरसा का परिवार उलिहातू सेे, बीरबांकी के पास कुरूम्बडा गाॅंव चले गया। कुछ समय बाद वहाॅं से वे बाम्बा चले गये। किसानों और मुण्डा साझेदारों के बीच एक झगड़े के कारण बिरसा का परिवार बाम्बा से चलकाद चला गया जहाॅं के मुखिया बिरसा के मामा बीर सिंह थे। 

बिरसा के बचपन के बारे में लोक कथाओं व गीतों से पता चलता है कि अन्य मुण्डा बच्चों की तरह बिरसा भी धूल मिट्टी में खेलते हुए, जंगलों में भेड़ बकरियाॅं चराते हुए बड़ा हुआ। जवान होते-होते बिरसा बहुत अच्छी बाॅंसुरी बजाना सीख गया था। साथ ही वह इकतारे जैसा एक स्थानीय वाद्य – तुइला भी बजाना सीख गया। बिरसा का बहुत समय अखड़ा – गाॅंव की नाचने की जगह, पर भी बीतता था।

गरीबी के कारण बिरसा आयुभातु गाॅंव में अपने मामा के साथ दो साल तक रहा और एक स्कूल में पढ़ने भी गया। पढ़ने में बिरसा का बहुत मन लगता था। बाद में कुछ साल बिरसा एक जर्मन मिशन स्कूल में भी पढ़ा। अधिकतर समय वह जंगल में और छोटा नागपुर के गाॅंवों में घूमता रहता था और अपने विचारों में खोया रहता था। उसके साथी कहते थे कि वो अजीब-अजीब बातें करता रहता है।

विडियो आभार : युनुस टोप्पो

कुछ दिन बिरसा नें ईसाई धर्म का पालन किया। लेकिन धीरे धीरे जैसे-जैसे वो अपनें आसपास हो रहे आंदोलनों के संपर्क में आया उसका विचार बना कि उन्हे अपने पूर्वजों की धार्मिक परम्परा का ही पालन करना चाहिए। इसी समय वो क्षेत्र में अंग्रेज़ों व स्थानीय राजाओं के शोषण के खि़लाफ़ चल रहे सरदार आंदोलन के सम्पर्क में आया और उसमें भाग लेने लगा। यह आंदोलन, आदिवासियों के जंगलों पर पारम्परिक हकों पर सरकार द्वारा लगाई जा रही रोक के खि़लाफ़ था। 1893-94 में अंग्रेज़ों ने गाॅंव में आने वाली सारी चारागाह व अन्य गैर काश्त भूमि को वन विभाग में ले लिया। आबादी की ज़मीनों को छोड़ कर लगभग सारी ज़मीन वन करार कर दी गई। लोगों से उनकी ज़मीन के हक के सबूत मांगे जाने लगे। इन कानूनों से आदिवासी बहुत परेशान थे।

इस समय तक बिरसा जवान हो चुका था। काम की तलाश में इधर-उधर घूमने, जंगलों में बसे गाॅंवों की समस्याओं को देखकर, आंदोलनों में भाग लेने और अलग-अलग धर्मों के बारे में जानने के कारण वैचारिक रूप से भी बिरसा परिपक्व हो रहा था।

बिरसा नें एक नये धर्म की घोषणा की और उसका प्रचार करने लगा। इस नये धर्म के अनुसार एक ही ईश्वर था। मुख्यतः यह ईसाई धर्म के ख़िलाफ़ था और उनके द्वारा लगाये गये कर के खि़लाफ़ था। इस बात से आकर्षित होकर बहुत से मुण्डा, ओराॅंव और खाड़िया आदिवासी इससे जुड़ने लगे। बिरसा को लोग अवतार मानने लगे और उसको देखने के लिये बड़ी संख्या में उसके गाॅंव आने लगे। बिरसाइट धर्म के मुखिया बिरसा को लोग धरती आबा बुलाने लगे और इस धर्म का प्रसार काफ़ी बड़े क्षेत्र में हो गया। हिन्दू और मुसलमान भी बिरसा के पास उपचार के लिये आते थे। बिरसा लोगों को ठीक करता था और उपदेश देता था। बिरसा भगवान के बारे में बहुत से लोक गीत बन गये जो आज भी प्रचलित हैं।

1856 के बाद अंग्रेज़ों नें छोटा नागपुर इलाके में गैर-आदिवासी किसानों को वहाॅं बसाना शुरू किया क्योंकि आदिवासियों से उन्हे कुछ खास आय नहीं हो रही थी। खेती इन बाहर से आये लोगों को ठेके पर दी जाने लगी। धीरे-धीरे इन लोगों द्वारा आदिवासियों का शोषण किया जाने लगा और इस इलाके में कर्ज़ के बदले बंधुआ मज़दूरी, बेगार प्रथा आ गई। आदिवासी अपनी ज़मीनों से बेदखल किये जाने लगे। 1875 तक तो ऐसी स्थिती हो गई कि अधिकतर गाॅंवों में आदिवास मुखियाओं के पास जंगल और ज़मीन के कोई हक नहीं रहे। इस सब के चलते लोग बहुत परेशान थे। इस समय तक बिरसा के अनुयायी भी बहुत बढ़ चुके थे। 

बोलांगीर ज़िले के साथियों ने मनाई बिरसा मुण्डा जयंती

ऐसे में बिरसा नें नारा दिया – आबुआ राज स्तेर जाना, महारानी राज टुन्डू जाना – महारानी का राज जाने दो, अपना राज आने दो। इसके साथ जंगल और ज़मीन पर वापिस अपना अधिकार स्थापित करने के लिये बिरसा नें अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ उलगुलान अर्थात् संघर्ष का ऐलान कर दिया। उसने किसानों को आदेश दिया कि सभी लोग अंग्रेज़ों को लगान देना बंद कर दें। 1894 में ईसाई धर्म त्याग दिया। उसने खुले आम अंग्रेज़ों को दुश्मन धोषित कर दिया। एक बार वो पकड़ा गया और दो साल जेल में रखा गया। वापिस आने पर वो छुप कर घूमता रहा और गाॅंवों में लोगों के साथ मीटिंग करता रहा। इस लड़ाई के लिये उसके साथ 7000 लोग इकठ्ठे हो गये। ये लोग जगह-जगह अंग्रेज़ों के ठिकानों पर हमले करते रहे। हज़ारों आदिवासी पुरूष व महिलाएं इस संघर्ष में मारे गये।

3 फ़रवरी 1900 को बिरसा को जमकोपई के जंगलों में चक्रधरपुर में पकड़ा गया। उसके 460 साथी भी पकड़े गये। बहुतों को वहीं मार दिया। कुछ को काला पानी भेज दिया गया। कुछ को उम्र कैद हो गई। बिरसा की मृत्यु 9 जून 1990 को जेल में हो गई। मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं था। 

बिरसा मुण्डा के संघर्ष के चलते 1908 में अंग्रेज़ों को कानून बनाना पड़ा कि आदिवासियों की ज़मीनें गैर-आदिवासी नहीं ले सकते। इसी के चलते आज तक आदिवासियों के पास उनकी ज़मीनें बची हैं। यदि यह संघर्ष व बलिदान न होते तो आज आदिवासी पूरी तरह भूमिहीन हो गये होते।

धीरे धीरे देश में बिरसा मुण्डा का नाम फैल गया है। इस वर्ष सैंकड़ों जगहों पर इनकी जयंती मनाई जाती है। संसद भवन में भी इनकी मूर्ती स्थापित की गई है। आज भी बिरसा नौजवानों के लिये एक प्रमुख प्रेरणा स्त्रोत हैं और हमें अन्याय के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने के लिये प्रेरित करते हैं।

आदिवासी जन संगठनों द्वारा रविवार 22 नवंबर 2020 को बड़वानी ज़िले के पानसेमल तहसील में बिरसा मुंडा की 145वी जयंती मनाई गई। रैली निकाल कर, नाचते, गाते और नारे लगाते हुए, सब लोग एक मंच पर शामिल हुए। साथ ही जल, जंगल और ज़मीन; शिक्षा; पलायन; ग्रामसभा; संसक्रती(रीति रिवाज); वन अधिकार मान्यता कानून; बिरसा मुंडा की जीवनी तथा उनका गरीबों के प्रति योगदान जैसे ज़रूरी मुद्दों को लेकर भी बात हुई।
विडियो आभार : पप्पू आर्या

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  • अमित / Amit

    अमित, सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं और मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले में एक वैकल्पिक शिक्षा के प्रयोग पर शुरू हुआ स्थानीय स्कूल - आधारशिला शिक्षण केन्द्र चलाते हैं।

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