पहाड़ों में हैं गाँव सूने, तुम चले हो जश्न मनाने? – कविता

गोपाल लोधियाल:

पहाड़ों में हैं गाँव सूने, तुम चले हो जश्न मनाने?
जो पीड़ा थी तब हिया में, वही आज भी मेरे हिया में।

23 साल का मैं नौजवान आज कहाँ है मेरी पहचान?
गाँव,बाखली,आंगन सब सूने पड़े हैं,
छज्जे पाखे टूट नीचे गिरे हैं,
गाँव में सब पानी भर गया, शायद बिजली से कौन चमक गया।
इस बात को मैं अभी तक समझ नहीं पाया,
कूट-कूट कर पत्थर मेरी छाती पर,
डेवलपमेंट-डेवलपमेंट यह मेरी समझ ना आया।
मेरी छाती में सुरंग खोदकर,
गाड़ गधेरों को बंजर कर डाला।

पहाड़ों में हैं गाँव सूने, तुम चले हो जश्न मनाने?
जो पीड़ा थी तब हिया में, वही आज भी मेरे हिया मैं।

शिक्षा,स्वास्थ्य और पलायन का जो बीड़ा हमारे लोगों ने उठाया था,
बस पीछे मुड़कर देखो क्या हमने वह पाया है।
खटीमा, मुजफ्फर, नैनीताल और मसूरी
कैसे भूले हम इन सब की दास्तान?
उत्तराखंड को उजाडखंण बनाने वालों, यही दी तुमने हमको पहचान।
किसे मुबारकबाद दूँ और कैसे दूँ और किस मुंह से दूँ?
पहाड़ों के हाड काट कर,
गाड़ गधेरे खोद-खोद कर,
लीसा बजरी पत्थर बेच-बेच कर,
जंगल जमीन खुर्द-बुर्द कर,
आपदाओं को बोया जाता है,
इस आपदा में फिर अवसर तलाशा जाता है,
स्कूटर के नंबर पर भी डीजल भरवाया जाता है।

पहाड़ों में हैं गाँव सूने, चले हो तुम जश्न मनाने?
जो पीड़ा थी तब हिया में वही आज भी मेरे हिया में।

गाँव छोड़कर शहर में, मैं भरमाया,
पेट है खाली जेब है खाली,
शहरों के छोटे से गार्डन में योग सिखाया जाता है
अपने गाँव का हुलार उकाव
अब एवरेस्ट नजर आता है।

पहाड़ों में हैं गाँव सूने, चले हो तुम जश्न मनाने?
जो पीड़ा थी तब हिया में वही आज भी मेरे हिया में।

(9 नवंबर – उत्तराखंड राज्य की स्थापना दिवस पर)

Author

  • गोपाल लोधियाल / Gopal Lodhiyal

    गोपाल उत्तराखंड के नैनीताल ज़िले से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं। वह अपने क्षेत्र में वन पंचायत संघर्ष मोर्चा से जुड़कर स्थानीय समुदायों के हक़-अधिकारों के मुद्दों पर काम कर रहे हैं।

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