सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़ने के बाद मेरे अंदर हुए बदलाव – पार्वती

संगठनों के बीच नेतृत्व निर्माण की प्रक्रिया को शुरू करने के विचार से एक पहल के रूप में सामाजिक परिवर्तन शाला, एसएससी (अंग्रेज़ी में – स्कूल फॉर सोशल चेंज) को श्रुति फेलो के संगठन क्षेत्रों में शुरू किया गया था। संगठन के कार्यकर्ता और युवाओं के बीच वैज्ञानिक चेतना को बढ़ाने, अंध-विश्वास को विवेक की दृष्टि से देखने और प्रतिभागियों में नेतृत्व निर्माण करना इसका मुख्य उद्देश्य बना। वैकल्पिक और गैर-औपचारिक शिक्षा विधियों में लगे वरिष्ठ साथियों ने इसके लिए पाठ्यक्रम विकसित किया – जो ब्रह्मांड की उत्पत्ति, सभ्यताओं की शुरुआत, और भारत और दुनिया में सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रणालियों को समझाता है। यह पाठ्यक्रम एक ही समय में, स्थानीय ज्ञान से भी विकसित किया जाता है। 6-7 दिनों (प्रत्येक क्षेत्र में) के 4-5 शिविर (चरण) में आयोजित एसएससी, एक वर्ष में 35-40 दिनों में पाठ्यक्रम को पूर्ण करता है। सामाजिक परिवर्तन शाला 4, भाषा-आधारित क्षेत्रों – हिंदी, मराठी, तमिल और उड़िया भाषाओं में बाँट कर चलाया जाता है। यह बड़े पैमाने पर सामूहिक चर्चाओं और प्रस्तुतियों, खेलों, भूमिका-नाटकों और रंगमंच के माध्यम से स्थानीय प्रथाओं को सीखने, विश्वासों और प्रथाओं का विश्लेषण करने और चित्रण के लिए दृश्य-श्रव्य सामग्री के उपयोग पर निर्भर करता है।
इस साल के हिंदी एसएससी में 10 राज्यों से करीब 45-48 साथी जुड़े। पाँचों शिविर कर लेने के बाद अपने अन्दर महसूस हुए कुछ बदलावों को प्रतिभागियों ने साझा किया है

पार्वती मुर्मू:

सामाजिक परिवर्तन शाला में जुड़ने से मुझे बहुत साड़ी जानकारी और ज्ञान प्राप्त हुआ है। पहले मैं सोचती थी कि धरती को इश्वर ने बनाया है। परन्तु इस शिविर में भाग लेने के बाद मालूम हुआ कि धरती वैज्ञानिक तरीके से बनी है न की इश्वर की देन है। शिविर में भाग लेना होगा सुन कर ही मैं घबरा गयी थी। इतनी दूर आने-जाने से ही मुझे डर लगा। मुझे लगता था कि शिविर में आये बाकी लोगों से मैं कैसे बात करुँगी। पर होशंगाबाद वाले शिविर से अभी उत्तराखंड वाले शिविर तक मुझे बहुत सारे दोस्त मिल गए हैं। पहले सबसे बोलने में डर लगता था कि हम जो बोलेंगे उनको समझ आएगा कि नहीं। पर अब तो काफी बोल लेते हैं, अब डर नहीं लगता। 7-8 दिन साथ रह कर एक परिवार जैसे लगता है, साथ ही में बैठते हैं, शिविर करते हैं, साथ ही खाना खाते हैं, तो परिवार जैसे ही हुए।

मेरे निजी व्यवहार में ये बदलाव आया कि पहले तो किसी से बात नहीं करते थे। अब वैसे नहीं होता है, सबसे बात करते हैं। पहले तो पुरुषों के साथ बात भी नहीं करते थे या बोलते थे..उनके आस-पास बैठ कर खाना भी नहीं खाते थे। पहले सोचते थे कि हम बिहार से हैं, जबकि बाकी सब तो दुसरे राज्यों से हैं, तो उनके साथ क्यूँ बैठेंगे या खाना खायेंगे। अब ऐसा नहीं सोचते हैं, सबके साथ ही दिन भर के सब पढ़ाई करना, चर्चा करना, नए-नए विषयों के बारे में सीखना, खाना-पीना और एक दुसरे के इलाके के बारे में बताना-जानना, सब साथ ही में करते हैं। एक परिवार में, भाई-बहन, व अन्य सदस्यों के साथ जैसा ही लगता है। एक और बदलाव जो आया है कि अब मैं लोगों के सामने कैसे अपनी बात रखनी चाहिए, ये भी सीखी हूँ। पहले तप कप भी बात करने आता या मुझसे कुछ पूछा जाता तो मुझे मन में डर लगता था कि अगर गलत बोल दिया। पर धीरे-धीरे अब मन में डर नहीं लगता है.. अभी मैं बोल लेती हूँ। पहले शिविर में भाषण नहीं दे पाने से, अब मैं सबके सामने भाषण भी दे देती हूँ और अपनी बात भी रखती हूँ..!!

अगर मैं कुशलता के स्तर अपर अपने अंदर बदलाव देखती हूँ तो वो है कि शुरू शुरू में तो मुझे उतना मोबाइल चलाना नहीं आता था। पांचवे शिविर में आते-आते तो मैं काफी आसानी से अब मोबाइल चलाना सीख गयी हूँ। अब मोबाइल में छोटे-छोटे पोस्टर भी बना लेती हूँ और विडियो बनाना भी थोड़ा सा सीखी हूँ। अब मुझे ज़ूम प्लेटफार्म के माध्यम से मीटिंग में जुड़ना भी आ गया है। शिविरों में दी गयी गतिविधियों के माध्यम से अब गूगल पर बोलकर और लिखकर सर्च करना सीखा है।

पहले तो हम लोग बनाया हुआ गाना गाते थे और कभी इस बारे में नहीं सोचे थे कि कैसे गाना बना सकते हैं। अब तो खुद से गाना बनाना भी सीख गए हैं और बार-बार उसको गाते भी हैं। इसमें राजस्थान में 03 दिविसीय संगीत शिविर की भी एक अहम भूमिका थी।

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  • पार्वती मुर्मू / Parvati Murmu

    पार्वती, बिहार के बांका ज़िले से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़ी हैं। पार्वती पिछले 03 साल से क्षेत्रीय संगठन के साथ जुड़कर आदिवासी समुदाय के हक़-अधिकारों के लिए काम कर रही हैं।

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