एड. आराधना भार्गव:
प्राचीन काल में कबीलाई समाज के समय, महिला परिवार व कबीले की मुखिया होती थी। समाज में महिलाओं का सम्मानजनक स्थान था। महिलाओं के नेतृत्व में ही कबीले के फैसले हुआ करते थे। द्वापर युग में भी महिलाओं को दैहिक आज़ादी दिखाई देती है। भारतीय समाज के लिए पाँचवीं और छठी शताब्दी महत्वपूर्ण है, जिसमें सामाजिक नियमावलियों का निर्माण हुआ और वर्ण तथा लिंग अधारित वर्चस्ववादी भारतीय जीवन पद्धति बनी। छठी शताब्दी तक आत-आते भारतीय समाज में सामंती व्यवस्था बेहद मज़बूत हो चुकी थी और प्रारंभिक मातृसत्तात्मक समाज का अब पूर्ण रूप से पितृात्मक समाज में रूपांतरण हो चुका था। स्त्री की भूमिका केवल भोग्या और संतानोत्पत्ति तक सीमित हो गई थी, यानि नारी की देह की स्वतंत्रता पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी। महिलाओं का सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहींं था। परिवार में फैसला लेने की भूमिका स्त्री की नहीं थी। ओलंपिक खेल खेलना तो दूर देखना भी वर्जित था। वेदों के अध्ययन पर पूर्णतः रोक लगी हुई थी।
भारतीय समाज में स्त्री समानता का संघर्ष 19वीं शताब्दी से शुरू हुआ। सावित्री फुले और ज्योतिबा फुले के समाज सुधार आन्दोलनों की इसमें मुख्य भूमिका थी, जिन्होंने सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया। राजा राममोहन राय और उनके सहयोगी जो ब्रम्ह समाज से जुड़े थे, उनके प्रयासों से सती-प्रथा निषेध कानून बना। बाल विवाह एक अभिशाप था, जिसके कारण बड़ी संख्या में बाल विधवाएं नारकीय जीवन जीने के लिए विवश थी। ब्रम्ह समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज ने अनेक समाज सुधार आन्दोलन में सक्रिया भूमिका निभाई।
स्वतन्त्रता आंदोलन के समय सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी और घर परिवार से उन्हें बाहर आने को प्रेरित करने का श्रेय समाजवादी आन्दोलन की नेत्री कमलादेवी चट्टोपाध्याय जी को जाता है। गाँधी जी ने कमलादेवी चट्टोपाध्याय की सलाह पर देश की आज़ादी के असहयोग आन्दोलन में महिलाओं की महती आवश्यकता को स्वीकारा। कमलादेवी ने महिलाओं की आर्थिक हालत में सुधार करने हेतु हस्तकरघा उद्योग तथा सहकारी समितियों का गठन कर लघु उद्योग को बढ़ावा देने की बात रखी।
आज़ादी के बाद से आज तक, महिलाओं की समस्याओं और उनके साथ गैर बराबरी के व्यवयहार को समाज और सरकारों के ध्यान में लाने का काम मुख्यतः देश में नारी मुक्ति आन्दोलन ने किया। इसी की परिणीती थी कि 1956 के पश्चात् महिलाओं को सम्पत्ति पर अधिकार मिला। महिला आन्दोलन के परिणाम स्वरूप आज महिलाऐं ओलंपिक खेलों में पदक हासिल कर देश का गौरव बढ़ा रही हैं।
संविधान में महिला समानता के प्रावधान
देश स्वतंत्र होने के बाद भारत के संविधान बनाने के लिए समिति का गठन किया गया जिसमें 11 महिलाएं थी। संविधान निर्माताओं को यह अच्छी तरह से ज्ञात था कि देश में जातिव्यवस्था, पारंपरिक समाज के मूल्यों व पुरुषसत्तात्मक सोच के चलते महिलाओं के साथ बहुत भेदभाव व शोषण होता है। इसलिए संविधान में स्त्री पुरूष समानता को पाटने व उन्हे व्यक्तिगत प्रगति के लिए समान अवसर प्रदान करने का भरपूर प्रयास किया गया है।
मौलिक अधिकार भारत के संविधान की मूल आत्मा है। इसके विभिन्न अनुच्छेदों में अलग-अलग अधिकारों का उल्लेख किया गया है।
मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 21 में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। इसका मतलब है कि महिला को उसके शरीर पर पूरा नियंत्रण है। वह चाहे तो बच्चा पैदा करे या ना करें। जैसे कपड़े पहनना चाहे पहने। स्त्री को अपनी शरीर का जिस तरीके से उपयोग करना है वह कर सकती है। स्त्री के शरीर पर सिर्फ और सिर्फ स्त्री का ही हक है, यह अधिकार स्त्री को भारत के संविधान ने दिया है।
लेकिन हम सब जानते हैं कि असलियत क्या है। हमारे देश में महिलाओं के प्राण और दैहिक स्वतंत्रता कितनी लागू है यह हमें समझना होगा। माँ के गर्भ में आते ही अगर परिवार को यह पता चल जाए कि गर्भ में बेटी पल रही है तो धरती पर भूचाल आ जाता है। बेटी की हत्या गर्भ में ही करा दी जाए, यह सभ्रांत परिवारों में ही अधिक देखा जाता है। गर्भ में अगर बेटी बच गई और उसने दुनिया देखने का प्रयास किया तो उस पर गिद्ध दृष्टि रखने वाला पितृात्मक समाज सामुहिक बलत्कार करके उसे मार डालता है। अगर इससे भी बेटी बच गई और माता-पिता ने उसके हाथ पीले कर, अगर कन्यादान कर बेटी दरिन्दों के हाथ में सौंप दी तो दहेज हत्या कर बेटी को दुनिया से अलविदा कर दिया जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 21 में नारी के प्राण की सुरक्षा करने का उल्लेख भी है, पर भारत का संविधान अपने आप को नारी के प्राण की सुरक्षा करने में असहाय और पंगु समझ रहा है। एनसीआरबी-2020 की ताजा रिपोर्ट में मध्यप्रदेश में बच्चों के खिलाफ अपराध सबसे ज्यादा पाए गये हैं। 7851 बच्चे लापता हुए जिनमें से 7230 नाबालिक लड़कियाँ है, बच्चों की हत्या, अपहरण, तस्करी के सबसे ज्यादा मामले मध्यप्रदेश में हैं। ये आंकड़े यह बताते हैं कि भारत का संविधान देश कि महिलाओं के प्राण की रक्षा नहीं कर पा रहा है।
देह की स्वतंत्रता पर भी हमें गौर करना पड़ेगा। क्या आज भी महिलाऐं अपने देह के प्रति स्वतंत्र है? तो उत्तर है नहींं, आज भी महिलाओं को यह आज़ादी नहीं है कि वह अपनी कोख में बच्चा पाले या नहीं, आज भी महिला को यह आज़ादी नहीं है कि वे कितने बच्चे पैदा करेगी। महिला अगर यह चाहे कि उसे बच्चे पैदा नहीं करना है, तो समाज उसे बांझ, कुल्टा, अबला, डायन, कुलक्षनी जैसे शब्दों से नवाजने का काम करेगा।
इसी तरह दण्ड प्रक्रिया संहिता में उल्लेख किया गया है कि किसी भी महिला को सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात् गिरफ्तार नहीं किया जाएगा व किसी महिला को कोई पुरूष गिरफ्तार नहीं करेगा। आये दिन भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में उल्लेखित दैहिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होते देश मूकदर्शक बना देख रहा है। लगभग दो माह पूर्व सुश्री मेधा पाटकरजी को, संचुरी सत्याग्रह के मज़दूरों के अन्दोलन में मध्यप्रदेश के पुलिस अधिकारियों ने इसी तरह गिरफ्तार किया गया। संविधान की रक्षा करने, दलित, आदिवासी, महिलाओं, मज़दूरों की आवाज़ बनकर उभरने वाली महिलाओं की दैहिक स्वतंत्रता kahin दिखाई नहीं देती। सुधा भारद्वज इसका जीता जागता उदाहरण हैं, लगभग 3 साल से बिना किसी कारण उन्हें जेल के अन्दर रखा गया है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 में शिक्षा के अधिकार का उल्लेख किया गया है। इस अनुच्छेद पर चर्चा करना आज की महती आवश्यकता है, क्योंकि शिक्षा देने से सरकार ने अपना पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया है। शिक्षा निजी हाथों में सौंपी जा रही है, जिसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव ग्रामीण क्षेत्र की बालिकाओं पर दिखना शुरू हो गया है। प्राईवेट स्कूलों की फीस अधिक होने के कारण लोग बेटियों को स्कूल भेजना बन्द कर रहे हैं। उसी प्रकार कोरोना काल में ऑनलाईन पढ़ाई के भी दुष्परिणाम हमने देखे हैं। घरों में अगर एक फोन है तो वह फोन, लड़के की पढ़ाई के लिए उपलब्ध है, लड़की को शिक्षा से वंचित रखा गया है।
अनुच्छेद 24 में कारखानों में रात्रि के समय महिलाओं को काम पर ना रखे जाने का उल्लेख होने के पश्चात् भी कारखानों में महिलाओं को काम पर रखा जा रहा है, जिसका सीधा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने के कारण घर की व्यवस्था पूरी तरह से डगमगा रही है। कारखानों के नियोक्ता दिन में महिलाओं की सुरक्षा नहीं कर पाते, वह रात में महिलाओं को किस तरीके से सुरक्षा मुहैया करा पायेगा? कार्यस्थल पर यौन शौषण रोकने के लिए इस देश में कोई कानून नहीं है, इसका आभास इस देश की न्यायापालिका को तब हुआ, जब राजस्थान में कार्यस्थल पर भंवरी देवी का यौन शौषण किया गया, इसके पश्चात् कार्यस्थल पर यौन शौषण को रोकने के लिए संविधान का सहारा लेते हुए विशाखा गाईड लाईन बनाई गई, किन्तु अत्यंत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि भारत के संविधान में प्रावधान होने के बाद भी कार्यस्थल पर महिलाऐं आज भी सुरक्षित नहीं हैं।
अनुच्छेद 20 में अपराधियों के लिए दोष सिद्धी के सम्बंध में संरक्षण प्रदान किया है। अगर कोई महिला किसी अपराध में जेल पहुँच जाती है, तो अपराध सिद्ध होने के पहले ही समाज तथा परिवार उसे दोषी करार देते हुए उसे जेल से रिहा कराने में किसी प्रकार की कोई रूचि नहीं रखता। पुरूष अगर जेल पहुँच जाए तो ज़मीन जायजाद बेचकर पुरूष को जेल से बाहर लाया जाता है किन्तु महिला के साथ ऐसा नहींं होता।
भारत का संविधान महिला और पुरूष में किसी प्रकार का भेदभाव नहींं करता। पिता की संपत्ति पर बेटा और बेटी का बराबरी का हक होगा, ऐसी समानता को लाने के लिए इस देश के पहले कानून मंत्री डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने हिन्दू कोर्ट बिल संसद मे पेश किया, जिसे पूर्ण बहुमत से गिरा दिया गया। परिणाम स्वरूप बाबा साहेब अम्बेडकर ने कानून मंत्री के पद से स्तीफा दे दिया। किन्तु बाबा साहेब के जाने के बाद उत्तराधिकारी कानून में परिवर्तन किया गया। अब पिता की सम्पत्ति में बेटी को भी बराबरी का हक देने का कानून तो बन गया है, किन्तु समाज आज भी बेटी को पिता की सम्पत्ति पर हक स्वेच्छा से देने को तैयार नहीं है।
भारत के संविधान में स्त्री को शिक्षा, सम्पत्ति, प्राण और दैहिक सुरक्षा तो प्रदान कर दी, किन्तु आज भी देश की नारी को दैहिक स्वतंत्रता समाज ने प्रदान नहीं की है। आईये हम सब मिलकर अपने पुत्र और पुत्रियों को समानता का पाठ पढ़ाएं, तभी आने वाली पीढ़ी स्वस्थ्य समाज का निर्माण करेगी। स्त्री के सम्मान का प्रथम पाठ घर से ही प्रारम्भ करना पढ़ेगा। संविधान में लिखने से इसे कानूनी आधार प्राप्त हो गया, लेकिन ज़रूरत है कि समाज इस लैंगिक बराबरी के मूल को अपनाए, तब यह ज़माना बदलेगा।