कौशल्या चौहान:  

कोरोना महामारी के चलते जब मार्च 2020 में पहला लॉकडाउन लगा तो पूरा देश, प्रवासी मज़दूरों के अभूतपूर्व पलायन का गवाह बना। इस दौरान इन कामगारों ने जिन तकलीफ़ों का सामना किया उनसी कुछ कहानियां तो सामने आई, लेकिन ना जाने ऐसी कितनी कहानियाँ हैं जिन्हें सामने आने के लिए ना तो कोई मंच मिला और ना ही उन्हें पढ़ने वाले लोग। ऐसी ही एक कहानी छत्तीसगढ़ की शिवकुमारी और उनके परिवार की है, जिसे छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार और महासमुंद जिलों में कार्यरत संगठन दलित आदिवासी मंच की कार्यकर्ता कौशल्या चौहान ने कलमबद्ध किया है।

मेरा नाम शिवकुमारी चौहान, है मेरी उम्र 36 वर्ष है और मैं ग्राम महाराजी ब्लाक -कसडेाल जिला -बलौदाबाजार छत्तीसगढ़ की निवासी हूँ। मेरे पति का नाम सुरेश चौहान उम्र 40 वर्ष है। मेरे 5 बच्चे हैं जिनमें सबसे बड़ी बेटी है उसका नाम अन्नु है और वह 15 साल की है। मेरा परिवार बहुत गरीब है, मेहतन मज़दूरी कर हम अपना पालन पोषण करते हैं। हमारा राशन कार्ड भी काट दिया गया है, इससे राशन भी नहीं मिल पा रहा है। 4 बच्चों को घर पर छोड़कर मैं और मेरे पति, बड़ी बेटी अनु के साथ नवंबर 2019 को ईंट भट्टे का काम करने हर साल की तरह इस साल भी उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के मटेवा गाँव में गए। हमें इस काम के लिए महाराजी (ब्लाक कसडोल) के सरदार पीरू खान ने 50 हज़ार रुपये एडवांस के रूप में दिये।

फिर हम लोगों ने वहाँ 2 महीने तक काम किया, इस दौरान जब मेरी तबियत खराब हुई तो हमने सरदार से पैसे मांगे लेकिन उसने हमारी बात को अनसुना कर दिया। फिर दोबारा पैसे मांगने पर सरदार ने कुछ पैसे दिये, उससे इलाज करवाया और कुछ दिन बाद मैं ठीक हो गयी। इसके बाद कुछ दिन काम करने के बाद फिर मेरी तबीयत खराब हो गई। इलाज के लिए सरदार से पैसे मांगने पर सरदार ने बोला कि आपकी समस्या ज़्यादा व काम कम है, पर उसने फिर भी पैसे नहीं दिए। इसी बीच लॉकडाउन हो गया और तबियत खराब होने के कारण मैं काम भी नहीं कर पा रही थी। फिर हमने घर वापस आने का सोचा और इस बारे में सरदार से बात की पर सरदार बोला कि आपने जो पैसा लिया है वह वापस कर दो फिर घर चले जाना।

कोरोना महामारी के चलते मार्च 2020 में लॉकडाउन होने के कारण राशन नहीं मिल रहा था और काम भी बंद था तो क्या करते? सरदार से घर आने के लिए पैसे मांगे तो उसने नहीं दिए। वहाँ रहने के दौरान कुछ 2300/- रुपए की बचत की थी, अप्रैल महीने में उसी से हम घर वापस आने की तैयारी कर रहे थे, हमारे साथ और भी मज़दूर साथी थे, उन्हें भी पैसा नहीं दिया गया। पैदल चल कर और लिफ्ट लेकर किसी तरह उत्तर प्रदेश के सबसे पास वाले रेलवे स्टेशन पहुँचने में ही हमें दो दिन लग गए। रेलवे स्टेशन में कोई सुविधा नहीं थी, सभी लोग भूखे-प्यासे थे। हमें जब वापसी की कोई ट्रेन नहीं मिली तो रास्ते में एक डंफर से लिफ्ट मांगी तो उसने नागपुर लाकर छोड़ दिया। वहां आराम किया, फिर साथ में कुछ आटा पकड़े थे उसी से रास्ते में रोटी बनाकर खाई। फिर वहाँ से एक ट्रक से लिफ्ट लेकर हम बिलासपुर तक पहुंचे, लेकिन यहां से घर तक आने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे, फिर घर वालों को फोन कर बताया। घरवालो ने कुछ मोटर सायकल भेजकर हमको महाराजी तक लाने की व्यवस्था कारवाई, यहाँ पर हमें क्वारंटाइन सेंटर में 14 दिन रखा गया। सरपंच द्वारा बस सूखा राशन दिया गया था, उसे ही बनाकर खाते थे।

14 दिन महराजी में रहने के बाद हम घर आ पाये। 14 दिन क्वारंटाइन में रहने के बाद भी कुछ काम नहीं मिल पाया। अब उधार लेकर घर चला रहे हैं, ईंट भट्टे में मज़दूर सप्लाई करने वाले सरदार का कर्ज अभी भी बाकी है। इसे चुकाने के लिए हम आगे भी पलायन करेंगे, चाहे हमें कितना ही और दुःख क्यूँ न सहना पड़े।  

फीचर्ड फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो आभार: huffpost.com

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  • कौशल्या चौहान / Kaushalya Chouhan

    कौशल्या, छत्तीसगढ़ के महासमुंद ज़िले से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़ी हैं। वर्तमान में कौशल्या, दलित आदिवासी मंच के साथ जुड़कर जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों पर काम कर रही हैं।

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