अनायास: जेल तो यातनाओं का सफर है

अरविंद अंजुम:

“मैंने मुख्य दारोगा से कहा कि मेरे बाल और मूंछ कटवा दीजिए। उसने कहा, गवर्नर ने सख्ती से मना किया है। मैंने कहा- मुझे मालूम है कि गवर्नर मुझे बाध्य नहीं कर सकते, परंतु मैं तो अपनी मर्जी से बाल कटवाना चाहता हूं। उसने कहा, गवर्नर से अर्ज करो। दूसरे दिन गवर्नर ने आज्ञा तो दे दी, पर कहा कि दो महीने में अभी तो तुम्हारे दो ही दिन बीते हैं, इतने ही में तुम्हारे बाल कटवाने का अधिकार मुझे नहीं। मैंने कहा – यह मैं जानता हूं, परंतु अपने आराम के लिए मैं अपनी इच्छा से उन्हें कटवाना चाहता हूं। इस पर उसने हंसकर बात टाल दी। बाद में मुझे मालूम हुआ कि गवर्नर को बहुत शक और डर हो गया था कि मेरी इस बात में कोई रहस्य तो नहीं है। उसके मत्थे मढ़कर कहीं जबरदस्ती बाल-मूंछ काट डालने का बावेला तो मैं न मचाउंगा? परंतु मैं बार-बार कहता ही रहा। मैंने यहां तक कह दिया कि मैं लिख कर देता हूं कि मैं अपनी इच्छा से बाल कटवाता हूं।तब कहीं गवर्नर का शक दूर हुआ और उसने दारोगा को जवानी हुक्म दिया कि, इन्हें कैंची दे दो।”

– महात्मा गांधी – (मेरे जेल के अनुभव पुस्तक से)

टिप्पणी –

जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे तब उन्हें जेल भेजा गया था; यह अनुभव उनकी पहली जेल यात्रा का है। दुनिया की कई महान हस्तियों ने अपने जेल के अनुभव लिखे हैं और सामान्य नागरिकों को, जो जेल नहीं गए हैं, इस रहस्यमयी दुनिया में झांकने का मौका दिया है।

उपरोक्त प्रसंग में इतनी मानवीयता के तत्व तो ज़रूर दिख रहे हैं कि अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त होते ही गवर्नर ने मौखिक आदेश देकर गांधी जी को बाल- मूंछ काटने के लिए कैंची उपलब्ध करवा दी।

एक सदी से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी लोगों की धारणा में यही व्याप्त है कि जेल को नरक की तरह ही होना चाहिए। अब मानवाधिकारों की बढ़ती चेतना ने भले ही कैदियों के, बंदियों के अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा किया है। पर जनमानस में विद्यमान सोच अक्सर पुलिस, न्यायालय और सरकार की कार्यवाइयों में दिख जाती है।

प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी को भीमा-कोरेगांव प्रसंग में गिरफ्तार कर तलोजा जेल में बंद कर दिया गया था। वे विगत कई दशकों से पार्किंसन रोग से ग्रस्त थे। उनका हाथ काँपता था और गिलास पकड़ने में  दिक्कत होती थी, पानी पीने के लिए वे ‘स्ट्रॉ’ का उपयोग करते थे। जेल में सामान्य रूप से स्ट्रॉ उपलब्ध नहीं होता है। अतः फादर स्टेन के वकील ने न्यायालय से स्ट्रॉ उपलब्ध कराने का निवेदन किया। पर हाईकोर्ट ने इस मसले पर एनआईए को अपना पक्ष रखने का समय दिया। अंततः 28 दिन के बाद उन्हें स्ट्रॉ दिया गया और वे अपनी प्यास बुझा सके। यह एक विचलित करने वाली घटना है जो इस मान्यता को पुष्ट करता है कि जेल ‘यातना- गृह’ है, सुधार गृह नहीं और क्रूरता इसका अंतरनिहित तत्व है। लेकिन क्या इस मान्यता को पुरजोर मुस्तैदी से चुनौती नहीं दी जानी चाहिए? अगर कोई विचाराधीन बंदी निर्दोष साबित हुआ, तो उसकी यातनाओं का हिसाब कौन करेगा- पुलिस,न्यायालय, सरकार या समाज?

फीचर्ड फोटो आभार: स्क्रॉल

Author

  • अरविंद / Arvind

    श्रुति से जुड़े झारखण्ड के संगठन विस्थापित मुक्ति वाहिनी को बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अरविन्द भाई, अभी जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी के अंशकालिक कार्यकर्ता हैं। अध्ययन, अनुवाद, प्रशिक्षण जैसी वैचारिक गतिविधियों में विशेष सक्रियता के साथ-साथ स्थानीय और राष्ट्रिए स्तर के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सवालों पर विशेष रुचि और समय-समय पर लेखन का काम करते हैं।

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