अरविंद अंजुम:
“मैं सत्य का एक विनम्र शोधक हूं। इसी जन्म में आत्मसाक्षात्कार के लिए मोक्ष प्राप्त करने के लिए आतुर हूं। करोड़ों गूंगी जनता के हृदय में बसे ईश्वर के सिवाय मैं और किसी ईश्वर को नहीं जानता। लोग अपने अंदर ईश्वर को पहचानते नहीं।मैं पहचानता हूं। इन लाखों-करोड़ों लोगों की सेवा के द्वारा मैं सत्य रुपी परमेश्वर की पूजा करता हूं।”
– महात्मा गांधी
टिप्पणी:-
(रविवार 8-अगस्त, 2021)
कल सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) सर्वोदय बुक स्टॉल के व्यवस्थापक अजय यादव, प्रकाशन भवन में आए थे। वे एक व्यवहारकुशल एवं चतुर व्यक्ति है, दुनियादारी की खासी समझ रखते हैं। बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा कि गांवों में रहना मुश्किल हो गया है। मैंने पूछा, क्यों? तो उनका जवाब था- “वे बहुत झूठ बोलते हैं, पाखंड की तो कोई सीमा नहीं है।” उनका यह मंतव्य एक खास किस्म के गांवों के लिए ही है। यह टिप्पणी आदिवासी गांवों पर लागू नहीं होती है। लेकिन झूठ बोलना तो मनुष्य की फितरत है।
अजय जी से बात करते वक्त अचानक मेरे दिमाग में गांधी जी की सत्य-निष्ठा की बात कांटे की तरह अटक गई। मैं हमेशा यह सोचा करता था कि सत्य एक दार्शनिक विषय भी है; इसकी कई मीमांसाएं हैं, जैन दर्शन में तो अनेकांतवाद सत्य को माना गया है। सत्य के सापेक्ष होने की भी बात कही जाती है, तो फिर गांधी जी ने सत्य- निष्ठा पर इतना जोर क्यों दिया?
मेरी समझ से झूठ और पाखंड भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। भारतीय समाज में जितने प्रकार के कर्मकांड-पाखंड हैं, वह सब झूठ की बुनियाद पर गढ़े गए हैं। कर्मकांड हमारे जीवन की दैनंदिन कार्यवाही है। अब इसी समाज में गांधी जी को परिवर्तन और आज़ादी के लक्ष्य को साधना था। इन दुर्गुणों के साथ तो इतने बड़े लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं थी, क्योंकि कोई भी मनुष्य और समाज झूठ की बुनियाद पर प्रामाणिक नहीं हो सकता। प्रामाणिकता के लिए सत्य-निष्ठा ज़रूरी है; भरोसा आप उसी पर कर सकते हैं जो सच बोलते हैं।
आप भी अनुभव करते होंगे कि कोई व्यक्ति जब आपको कोई वचन देता है, तो उसका पालन करेगा या नहीं, यह संशय हमेशा आपके मन में बना रहता है। गांधीजी भी तो सोचते होंगे कि मैं जो कार्यक्रम दे रहा हूं- असहयोग का, सविनय अवज्ञा का, लोग वचन देकर मुकर सकते हैं। इसलिए उन्होंने सत्य-निष्ठा पर इतना ज़ोर दिया। अगर कहना है तो फिर करना है, कोई बहाना नहीं। अगर नहीं करना है तो ‘न’ कहने का साहस भी होना चाहिए। झूठ और कायरता प्रामाणिक नहीं है। व्यक्तित्व को हल्का नहीं करना है।
इसलिये सत्य-निष्ठा सिर्फ नैतिक प्रश्न नहीं है, यह एक व्यवहारिक प्रश्न भी है। कोई भी समाज तभी आगे बढ़ सकता है जब वह प्रामाणिक हो। भारतीय समाज में यह प्रामाणिकता हासिल करने के लिए उसे सत्यनिष्ठ बनाना पड़ेगा, जो ईश्वर से बराबरी का दर्जा रखता है। हांलाकि ईश्वर वाली बात नास्तिकों को प्रभावित नहीं करने वाली है, लेकिन नास्तिको को सत्यनिष्ठ होने से क्यों पीछे रहना चाहिए?