अखिलेश:

55 साल के मनोज राम और उनके पिता निरो राम का जन्म, बरैठ पंचायत के अमृता गाँव के थाना-सौनवर्षा, ज़िला सहरसा (बिहार) में हुआ था। मनोज एक दलित परिवार से हैं। जब मनोज की उम्र लगभग 10 साल की थी, तब उनके घर में खाने-पीने की काफी दिक्कतें थी। 10 साल की छोटी सी उम्र में ही वह खाने-पीने और अच्छे कपड़े ख़रीद पाने की चाह में पास के यादव एवं ब्राह्मण टोला में नौकरी करने निकल गए। मनोज का काम था भैंस, बकरी और गाय के लिए चारा इकठ्ठा करना, उन्हें चारा डालना, और फिर जानवरों को नहला-धुलाकर मालिक के घर पर सही समय पर बाँध देना। काम की मज़दूरी के रूप में उन्हें सिर्फ खाने भर को मिलता था। 

जब मनोज की उम्र 12 साल की हुई, तब उनके मन में विचार आया कि हम ऐसी नौकरी क्यों करते हैं? ऐसी नौकरी करते रहेंगे तो इससे क्या फ़ायदा होगा? सिर्फ पेट भरने के लिए भात ही मिलता है, इससे तो अपना घर भी नहीं चलता! ये सोचते हुए मनौज ने यह नौकरी छोड़ दी और घर पर रहने लगे। कुछ दिनों के बाद मनोज को माँ के आँचल के खूँट में रूपये बंधे हुए दिखे तो उन्होने आँचल के खूँट को चुपके से खोला और उसमें बंधे 2 रूपये चुरा लिए। ये 2 रुपये लेकर वह गाँव से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर दूर पतर घट नाम की जगह पहुंचे, जहाँ इस इलाके का एक प्रचलित बाज़ार लगता है। 

वहाँ पहुँचकर मनोज ने 25 पैसे की काटी (सुआ), 25 पैसे का सूता (धागा), 25 पैसे की (सूता को मांजने वाला) मोम एवं 25 पैसे से चमड़े का छंटा हुआ भाग लिया साथ ही जूता-चप्पल पोलिश करने के लिए 1 रूपये का एक डब्बा पेंट खरीदा। फिर साइकिल-मिस्त्री की दुकान से पुरानी स्पोक लेकर उसके दो टुकड़े किए, उसे फिर पत्थर पर पीट-कर, घिस-कर नुकीला बनाकर चप्पल में घोप/गाथ दिया। फिर मनोज ने धागा बनाया और नुकीले स्पोक की नोक से धागा पकड़ने के लिए धागा को काटना शुरू किया। इन सब चीज़ों के साथ बाज़ार से जो छोटे औज़ार उन्होने लिए थे, उनके साथ दुकान लगाकर कहीं एक जगह पर बोरा/प्लास्टिक लेकर बैठ गए। लोगों ने मनोज से पूछना शुरू किया कि तुम इस तरह बाज़ार में बैठकर क्या करते हो? जवाब में मनोज लोगों को बताते थे कि वे पुराने जूते-चप्पल सीते हैं, और बदले में रूपये लेते हैं। लोगों ने उन्हे यह भी पूछा, “अरे ! तुम्हें जूता-चप्पल सीना आता भी है?”

किसी तरह मनोज ने 5 पाँच रूपये कमाए, तो उसमें से 2 दो रूपये अपनी माँ को वापस दिए और बचे हुए 3 रूपये लेकर बाज़ार चले गए। फिर वही सामान जूता पोलिश करने का डब्बा, काँटी, सूता, मोम और गाय की पुँछ से उन्होने जूता पॉलिश करने का ब्रश बनाया और उससे पोलिश करना चालू कर दिया। इस तरह मनोज यह सब सामान लेकर अलग-अलग गाँव जाते, टूटा-फूटा जूता-चप्पल सीते और पॉलिश करते। काम के बदले कोई उन्हें आटा देता था, तो कोई चावल देता था, और कोई पैसा/रूपया भी देता था। मनोज गाँव में ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाते – ‘किसी को जूता-चप्पल सिलाई एवं पॉलिश करवाना है तो आएं।’ लागातार पाँच सालों तक मनोज ने ये काम किया। उसके बाद इन्होनें पुराने छाते की मरम्मत का काम शुरू किया जो उन्होनें लगभग 2 सालों तक किया। फिर उन्होनें इनके साथ-साथ बाँस की बांसुरी बनाना भी चालू किया और उन्हें अलग-अलग रंगो में रंग कर, मेला-बाज़ार में बेचना चालू किया। बाँसुरी की कीमत इस प्रकार से थी – 5 पैसे वाली छोटी, 20 पैसे वाली हल्की मोटी और 25 पैसे वाली उन सबमें ज़्यादा मोटी वाली थी। 

मनोज का परिवार और उनके टोले के अन्य परिवार पीढ़ियों से गाँव में मरे हुए पशुओं (गाय, भैंस, बकरी, कुत्ता आदि) उठाने (और फेंकने) का काम करते आए थे। इसके लिए गाँव से लगभग 300 मीटर दूर, दो-चार लोग मिलकर मरे हुए पशु को कंधे पर उठाकर फेंकने जाते थे। इस काम के लिए इन्हें कोई भी मज़दूरी नहीं मिलती थी। हाँ! वो मरे हुए पशु की खाल उतार सकते थे, जिसे बेचने के लिए बाज़ार जाना पड़ता था। इसकी कीमत भी सिर्फ 50 रूपये के आस-पास ही मिलती थी। मृत पशु को फेंकने और उसकी खाल उतारने का काम करने जाने वाले लोगों को अपने-अपने घर से खाकर ही ये काम करने जाना पड़ता था। 4-5 लोगों को 50 रुपए के हिसाब से प्रति व्यक्ति 10 से 12 रुपये ही मिल पाता था, वो भी पूरे एक दिन के काम के बदले में। मनोज ने यह काम भी किया। 

मनोज राम के गाँव में लगभग 10 दस जातियों के लोग रहते हैं। इनमें से 9 जाति के लोग, इनके और इनके समुदाय के अन्य लोगों का काफी शोषण करते थे। क्यूंकि मनोज मृत जानवरों की खाल छीलकर बेचते थे, लोग उनसे छुआछूत भी करते थे। गाँव के लोग कहते, “तुम चमार जाति के लोग हो, तो तुम्हारा काम है चमड़ी छिलना। तुम यही काम के लायक हो। तुम लोग हमसे अलग रहो, दूर रहो, नहीं तो तुम हम लोगों को छू देगा, तुम गाय, भैंस, बकरी की खाल निकालते हो।” मनोज ने सोचा कि ये लोग भी इंसान हैं और वह खुद भी, तो फिर वह कैसे अछूत हैं? ये कहाँ से आ गया, अन्य जाति के लोग कहते कि तुम मरे हुए भैंस, बकरी, गाय उठाते हो, इसलिए तुम नपाक हो। उन्होंने सोचा हम लोग नीच काम करते है इसलिए लोग छूआछूत मानते हैं, इसलिए ये सब नीच काम को ही छोड़ ही देंगे। साल 2009 में, ये बात मनोज राम ने अपने गाँव के लोगों के बीच रखी कि हम और हमारे चमार समाज के लोग अब ये काम नहीं करेंगे। इसके बाद नौ जाति के लोगों ने कहा कि “तुम कैसे नहीं करोगे ये काम? तुम्हारे बाप-दादा-पूर्वज ये काम (मरे हुए गाय, भैंस, बकरी को उठाना) करते आए हैं।” 

जब काम से जुड़ी छुआछूत की बात आई तो मनोज ने कहा, “हम चमार भी इंसान हैं और आप लोग भी इंसान हैं, तो छुआछूत किस बात की?” सभी जाति के लोग मनोज राम पर दबाब डालने लगे और कहा, “अगर तुम इस पंचायत में आते हो तो ये सारे चमार काम करने ही पड़ेंगे। अगर तुम ये काम नहीं करोगे, तो तुम लोगों को इस गाँव में रहने नही देंगे, सब लोगों को मारकर भगा देंगे।” 9 समुदय के लोगों ने आस-पास के सभी दुकानदारों को कहा कि पंचायत में कोई दुकानदार चमार जाति के लोगों को कोई सामान नहीं देगा। अगर देगा तो उन दुकानदारों को दंड लगेगा, जिसमें 1100 रूपये जुर्माना देना होगा। अगर किसी के खेत-खलिहान में चमार जाति का कोई गया तो उसे मार कर बर्बाद कर देंगे। इस पर चमार समुदय के लोग बोले कि किसी के खेत-खलिहान, दुकान नहीं  जाएंगे, चाहे सामान लेने बाहर जाना पड़े। फिर उन नौ समुदाय के लोगों ने कहा, “तुम कैसे बाहर निकलोगे? किसी के खेत-खलिहान से हो कर ही ना जाओगे!” चमार समुदय के लोगों ने बोला हम लोग सरकारी सड़क से होकर जाऐंगे तो वो लोग बोले कि मेरे खेत के सामने आओगे तो मार कर गिरा देंगे।

इस घटना के बाद सभी चमार (दलित) जाति के लोगों में इतना डर भर गया था कि तीन दिन तक कोई घर से भी निकलता था। तीसरी रात को ही चमार समुदय के लोगों ने आपस में मीटिंग करी, मीटिंग में तय किया गया कि मनोज राम सहित सबको रात में ही थाना जाना होगा। रात 12 बजे में वह लोग थाने गए। तीन लोग थानेदार से मिले और थानेदार को पूरी घटना की जानकारी दी। थानेदार ने उनसे तुरंत 2 आवेदन लिखवाकर लिए। आवेदन देने पर थानेदार ने तुरंत कानूनी कार्रवाई शुरू करी। उसने तुरंत मुखिया को फोन किया और सारी बात बताई। जब एससी/एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज हुआ तो पूरे गाँव में हलचल मच गई कि वो चमार कैसे थाना पहँच गए? कैसे केस कर दिया? फिर थानेदार ने गाँव के नेता लोगो को बोला कि जल्दी समझौता कर लें, नहीं तो  फिर केस कर देंगे। सुबह होते ही सभी ने पंचायती बैठाई, वहां मुखिया, सरपंच ने बताया अगर चमार जाति के लोग हमारे गाय, भैंस नहीं उठायेंगे तो ये उनकी मर्ज़ी की बात है, उनकी इच्छा की बात है। फिर चमार जाति के लोगों ने तय किया कि हम मरे गाय, भैंस, बकरी को उठाऐंगे, लेकिन इसके लिए हर महीने प्रत्येक व्यक्ति को इस काम के लिए 10,000 रूपये देने होंगे। अगर ऐसा होता है तो वो ज़रूर मरे हुए जानवरों को उठाऐंगे।

लेकिन इस पर सहमति नहीं बनी, न ही चमार जाती के लोगों पर मरे हुए जानवर उठाने के लिए कोई दबाव बनाया गया, फिर केस ही बंद कर दिया गया। अब जिसके भी ढोर मरते हैं तो उस परिवार के लोग खुद ही उसे उठाते हैं।

मनोज राम, गाँव में अभी राज मिस्त्री का काम करते हैं, जैसे न्यू मकान, मन्दिर आदि इमारतें बनाने का काम। मनोज पूरे आत्मसम्मान के साथ यह काम करते हैं और अपनी आजीविका कमाते हैं, आज हर जाति के लोगों के यहाँ उनका जाना आना है और लोग उन्हें भोज में भी बुलाते हैं। अब मनोज को हर जाति के लोग अपने यहाँ शिव चर्चा, कीर्तन-भजन, दशहरा, नौरात्रि जैसे अवसरों पर बुलाते हैं, जहां वो गाते भी हैं और ढ़ोल भी बजाते हैं। मनोज और अमृता गाँव के दलित टोले के लोगों का जाति व्यवस्था के खिलाफ मिलकर उठ खड़ा होना, बराबरी पाने की लड़ाई की एक कहानी भी है और इसकी एक मिसाल भी।

फोटो आभार: अखिलेश

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  • अखिलेश / Akhilesh

    अखिलेश, बिहार के अररिया ज़िले से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं। गाने लिखना, गाना और सबको खेल खिलाने में माहिर। जन जागरण शक्ति संगठन के साथ मिलकर अपने समुदाय के लिए काम करते हैं।

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